भारतीय नौसेना को चाहिए 'अदृश्य' युद्धपोत जो समुद्र की सतह से आने वाले खतरों को दे सकें चकमा

भारतीय नौसेना को चाहिए 'अदृश्य' युद्धपोत जो समुद्र की सतह से आने वाले खतरों को दे सकें चकमा


भारतीय नौसेना अपनी ताकत को भविष्य की चुनौतियों के हिसाब से ढालने के लिए एक बड़ी रणनीतिक तैयारी कर रही है। अब नौसेना ने अपने बेड़े को और अधिक सुरक्षित और घातक बनाने के लिए घरेलू प्राइवेट सेक्टर का दरवाजा खटखटाया है।

'इनोवेशन्स फॉर डिफेंस एक्सीलेंस' (iDEX) विनर्स-2025 चैलेंज के तहत, नौसेना ने भारतीय कंपनियों के सामने एक चुनौती रखी है। वे ऐसी तकनीक की तलाश में हैं जो भविष्य के युद्धपोतों के रडार क्रॉस-सेक्शन (RCS) को काफी हद तक कम कर सके, खासकर उन खतरों के खिलाफ जो समुद्र की सतह के बिल्कुल करीब से आते हैं।

विशालकाय जहाजों को 'गायब' करने की चुनौती​

हाल ही में नेवी हेडक्वार्टर में हुई एक ब्रीफिंग के दौरान, इंडस्ट्री के दिग्गजों को एक कठिन इंजीनियरिंग समस्या समझाई गई। समस्या यह है कि 6,000 से 9,000 टन वजनी भारी-भरकम फ्रिगेट्स (युद्धपोत) को रडार की नजरों से कैसे छिपाया जाए।

हालांकि तकनीकी बारीकियों को गुप्त रखा गया है, लेकिन नौसेना की जरूरत बिल्कुल साफ है। उन्हें ऐसे डिजाइन और मैटेरियल चाहिए जो 'ग्रेजिंग-एंगल' खतरों के खिलाफ रडार के संकेतों को दबा सकें। ग्रेजिंग एंगल का मतलब है जब दुश्मन का सेंसर या रडार जहाज को बिल्कुल नीचे से, यानी पानी के स्तर (0 से 5 डिग्री के कोण) से देख रहा हो।

यह पहल सतह के जहाजों को 'सी-स्किमिंग' एंटी-शिप मिसाइलों से बचाने के लिए की जा रही है। वाईजे-18 जैसी आधुनिक मिसाइलें अपने हमले के आखिरी चरण में लहरों से महज 5 से 15 मीटर ऊपर उड़ती हैं, जिससे उन्हें पकड़ना और नष्ट करना बेहद मुश्किल हो जाता है।

समुद्र की सतह और रडार का विज्ञान​

दशकों से युद्धपोतों को स्टील्थ यानी अदृश्य बनाने के लिए उनके डिजाइन को कोणीय (एंगल्ड) बनाया जाता रहा है, ताकि रडार की तरंगें ऊपर या नीचे की तरफ रिफ्लेक्ट हो जाएं। यह तकनीक ऊंचाई से देख रहे रडार के खिलाफ तो कारगर है, लेकिन नीचे से आने वाली मिसाइलों या दुश्मन के जहाजों के लिए यह अलग चुनौती पेश करती है।

निचले कोणों पर, समुद्र की सतह एक शीशे की तरह काम करती है। जहाज की सीधी दीवारें, गन टर्रेट्स और डेक पर रखा सामान 'कॉर्नर रिफ्लेक्टर्स' बन जाते हैं। ये रडार के सिग्नल को सीधे दुश्मन की तरफ वापस भेज देते हैं।

इसका नतीजा यह होता है कि एक 'स्टील्थ' जहाज भी रडार स्क्रीन पर एक बड़े चमकदार धब्बे जैसा दिखाई देने लगता है। नौसेना चाहती है कि इंडस्ट्री के एक्सपर्ट्स इन रिफ्लेक्शन्स को खत्म करें, ताकि मिसाइल अपने सफर के आखिरी कुछ किलोमीटर में जहाज पर निशाना लॉक न कर पाए।

मौजूदा क्षमताओं से आगे की सोच​

भारतीय नौसेना के पास अभी तलवार क्लास, दिल्ली क्लास और हाल ही में शामिल हुए नीलगिरी क्लास जैसे कई युद्धपोत हैं, जिनमें रडार से बचने की कुछ क्षमताएं हैं। हालांकि ये जहाज लंबी दूरी के रडार को चकमा देने में सक्षम हैं, लेकिन इन्हें आज के दौर के हाई-टेक मिसाइल सीकर्स से बचने के लिए डिजाइन नहीं किया गया था, जो हमले के आखिरी चरण में सक्रिय होते हैं।

आज के समय में सैटेलाइट सर्विलांस और यूएवी (ड्रोन) ने समुद्री युद्ध का तरीका बदल दिया है। दुश्मन अंतरिक्ष से ही बेड़े की लोकेशन का अंदाजा लगा सकता है। इसलिए, अब मुख्य सुरक्षा केवल जहाज को छिपाना नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करना है कि जब कोई मिसाइल अपने आखिरी मिनट में रडार ऑन करे, तो उसे सामने समुद्र के अलावा कुछ न दिखे।

भविष्य की तकनीक और इंडस्ट्री के लिए मौके​

यह iDEX चैलेंज इस बात का संकेत है कि भारतीय नौसेना अब 'अगले जनरेशन' के युद्धपोतों की ओर बढ़ रही है। जानकारों का मानना है कि यह तैयारी भविष्य के प्रोजेक्ट 17B फ्रिगेट्स या नेक्स्ट जनरेशन डिस्ट्रॉयर्स (NGD) के लिए हो सकती है।

इन जरूरतों को पूरा करने के लिए भारतीय डिफेंस कंपनियों और स्टार्टअप्स को सिर्फ जहाज के ढांचे के बदलाव से आगे सोचना होगा। इसके समाधानों में ये तकनीक शामिल हो सकती हैं:
  • एडवांस्ड मेटामैटेरियल्स: ऐसी सतह जो रडार की तरंगों को रिफ्लेक्ट करने के बजाय सोख ले।
  • एक्टिव कैंसिलेशन: ऐसे इलेक्ट्रॉनिक सिस्टम जो आने वाले रडार सिग्नल को बेअसर कर दें।
  • डेक डिजाइन में बदलाव: डेक पर रखे हार्डवेयर को छिपाना और जहाज के किनारों को एकदम साफ-सुथरा रखना।
इन 'लो-आरसीएस' क्षमताओं पर जोर देकर, भारतीय नौसेना यह सुनिश्चित करना चाहती है कि उसके प्रमुख युद्धपोत उन इलाकों में भी सुरक्षित रह सकें जहां दुश्मन का दबदबा हो और सुपरसोनिक मिसाइल से बचने के लिए प्रतिक्रिया का समय केवल कुछ सेकंड ही मिलता है।
 
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